
एक भिखारी की आत्म कहानी
जाडे का प्रात:काल था। शरीर को कम्पित करनेवाला शीत पड रहा था। घर के सारे व्यक्ति बैठे हुए चाय पी रहे थे। आनन्द का वातावरण अपनी चरम सीमा पर था - तभी द्वार पर से किसी ने पुकारा, " भगवान तुम्हारा भला करे, दो रोटी का आटा दिला दो।" इस एक पुकार की तो हम में से किसी ने लेशमात्र भी चिन्ता न की, परंतु जब थोडी देर के बाद पुन: वही करुण एवं दीनता से भरे हुए शब्द सुनाई पडे तो मैं उठा। उस समय मेरे मन में उस भिक्षुक के प्रति दया नहीं थी बल्कि मैं सोच रहा था कि ये भिक्षुक कार्य क्यों नहीं करते? ये समाज पर भार बनकर क्यों रहते हैं? इस प्रकार के विचारों में निमग्न मैं दरवाज़े पर गया। वहाँ एक दीन वृद्ध भिखारी को देखा, जो ठंड के कारण थर-थर काँप रहा था। भूख के कारण रो रहा था। जाडे से बचने के लिए उसके पास पर्याप्त वस्त्र भी नहीं थे। मैं ने कहा, "आओ अंदर, मैं तुम्हें भोजन दे दूँगा।" और वह भिखारी घर के भीतर चला आया। मैं ने उसे खाने के लिए रोटियाँ दीं और वह खाने लगा। भोजन करके जब वह निवृत्त हुआ तो मैं ने पूछा, "तुम इस वेदना एवं दुख से भरी हुई अवस्था को किस प्रकार प्राप्त हुए?”
मेरे इस प्रश्न को सुनकर क्षण भर उसने मेरी ओर देखा और बोला – “बाबूजी, इन बातों में क्या लोगे? यदि जानना ही चाहते हो तो सुनो। जहाँ तक मुझे याद है, जब मैं छोटा था तब मेरे घर में किसी प्रकार का अभाव नहीं था। किन्तु समय बदलता रहता है, क्योंकि कभी दिवस है और कभी अँधेरी रात। किसी मनुष्य को सर्वदा सुख नहीं मिला करता और यही मेरे साथ भी हुआ था।
मैं एक किसान परिवार का सदस्य हूँ। मेरे पूर्वज खेती करते थे। मैं भी पहले खेती करता था। जब आय कम और खर्च ज़्यादा पडने लगे तो गाँव के ज़मींदार से कर्ज़ लेकर खेती करने लगा। कर्ज़ कैसे चुकाता? पहले तो बैल बेचा। अंत में खेत को गिरवी रखकर कर्ज़ चुकाया। फिर क्या करूँ? अब तो खेत भी नहीं रहा और मैं किसान भी नहीं रहा।
पहले मज़्दूरी करता था। खेती के अलावा कुछ जानता भी नहीं था। कहीं नौकरी करके जीवन बिता लूँ तो कहाँ मिलती है इस बुढे को नौकरी ?
बाबूजी, समाज हमें फटकारता है। पर क्या वह कभी सोचता है कि इतने भूखों की जीविका का प्रबंध कैसे किया जाय ? भिक्षा तो हम लोगों को विवश होकर माँगनी पडती है। कौन ऐसा होगा, जो कि मेहनत व मज़दूरी करने के बजाय दर-दर फटकार सुनने के लिए जाएगा ? भिखारी तो जीवित ही मृतक के समान होता है। मैं भी अब निराश्रित होकर भीख माँगता फिरता हूँ, यदि भीख न माँगूँ तो इस वृद्ध अवस्था में क्या करूँ ? आँखों से दिखाई नहीं देता, दो डग चलने पर कदम लडखडाने लगते हैं।
भिखारी के जीवन की इस कष्टमय कहानी सुनकर मेरी आँखों से आँसू निकल पडे। मैं ने सोचा, मनुष्य का भाग्य कितना क्रूर होता है ! मनुष्य को वह कितना बदल डालता है।
अवलम्ब : आदर्श हिंदी निबंध