लखनऊ के महिला के इस आत्मकथांश की पूर्ति करें।
उन दिनों मैं लखनऊ विश्वविद्यालय में पढ रही थी।...
(सहायक बिंदू : मणिपूरी छात्र से प्रेम होना, शादी के बाद मणिपूर जाना, सास का माइती बाज़ार जाना, सास के साथ आपसी टकराव होना, मणिपूरी संस्कृति पहचानना।)
उत्तर :
मेरी आत्मकथा
उन दिनों मैं लखनऊ विश्वविद्यालय में पढ रही थी। कक्षा में जगह जगह के छात्र थे। उस से न जाने कैसा रिश्ता बन गया? प्यार, प्रेम, स्नेह आदि उसका नाम दे सकते हैं। पर यह तो …। शादी करूँगी तो इस से ही।
मणिपूर एक अच्छी जगह। यह तो गाँव है। यहाँ के लोग तो शहर के जैसे नहीं है। सब आपस में जानते पहचानते हैं। प्रदीप की माँ तो मुझे अपनी ही बेटी समझती है। आते ही उनका चरण छू लिया। मुझे भी इस घर का अंग होने का सौभाग्य मिला है।
"अरे, माँ इतनी सुबह-सुबह कहाँ जा रही हैं? टोकरी भी साथ ले जा रही है। अरे, यह क्या? घर में बने साग सब्जी बिकने जा रही है क्या? "
"माँ आज से आप बाज़ार नहीं जाएँगी। लखनाऊ में तो स्त्रियाँ बाजार में सिर्फ खरीदने के लिए जाती हैं। और यहाँ आप? क्या आप को शरम नहीं आती है? आज से आप नहीं जाएँगी । "
दो दिन बाद।
"अरे, आज माँ ने फिर शुरू किया? "
"जी सुनो तो, यह मुझे पसंद नहीं है। माँ घर पर ही रहेंगी। मैं अपनी सास को ऐसे इधर उधर भडकने नहीं दूँगी।"
"अरे, यह कैसी अजीब संस्कृति है? स्त्रियाँ को तो घर में ही रहना चाहिए। पैसे तो तुम काम करके ला रहे हो न?"
"ठीक है, तो उन्हें जाने दो। मैं उनको रोकूँगी नहीं। पर मुझ से भी जाने को मत कहना।"
किसी तरह तो समस्या हल हो गयी।
2 comments:
आपका परिश्रम सराहनीय है।
बधाइयाँ।
लेकिन पोस्टिंग केलिए इतनी देरी क्यों
नई पोस्टों की प्रतीक्षा करता हुँ
हम आपका परिचय पाना चाहते हैं।
hindisabha.ktr@blogspot.com
amarhindi.ktr@gmail.com
sthriyam+ko = sthriyomko
Post a Comment