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केरल के जंगल, नदियाँ, जंगली जीव आदि सब हमारी संपत्ती है, स्थिरता है, अभिमान है। ये सब आनेवाली पीढियों का हक हैं। इनको बिगाडने के लिए हम किसी भी शक्ती को मौका नहीं देंगे। हम इस धरती पर हाथ रखकर प्रतिज्ञा करते हैं कि अपने देश के जंगल, जलस्रोत और हरीतिमा को कायम रखेंगे।
जंगल के पहरेदार हम ही हैं।
जंगल के पहरेदार हम ही हैं।
जंगल के पहरेदार हम ही हैं।
मोहन राकेश जी के बारे में कुछ बातें…
इनका जन्म 8 जनवरी, 1925 को पंजाब के अमृतसर में हुआ था। ये ' नई कहानी ' के वरिष्ठ लेखक हैं। न आनेवाला कल, अन्धेरे बन्द कमरे, अन्तराल, बकलामा खुदा आदि उनके उपन्यास हैं। इन्होंने कई नाटक भी लिखे हैं - आधे अधूरे, लहरों के राजहँस, आषाढ का एक दिन आदि और मोहन राकेश के संपूर्ण नाटक में अन्य नाटक संकलित है। उनकी कहानियाँ दस प्रतिनिधी कहानियाँ और रात की बाहों में हैं। इन्होंने दो संस्कृत नाटकों का अनुवाद भी किये हैं शाकुँतलम और ...
उनकी किताबें…
रक्त की विशेषताएँ क्या क्या हैं?
रक्त एक तरल संयोजी ऊतक है जो रक्त वाहिनियों के अंदर विभिन्न अंगों में लगातार बहता रहता है। रक्तकण तीन प्रकार के होते हैं, लाल रक्त कणिका, श्वेत रक्त कणिका और प्लैटलैट्स। मनुष्य-शरीर में करीब पाँच लिटर रक्त विद्यमान रहता है।
रक्तदान जीवनदान है, क्यों?
प्लाज़मा के सहारे रक्तकण सारे शरीर में पहूँच पाते हैं और वह प्लाज़मा ही है जो आंतों से शोषित पोषक तत्वों को शरीर के विभिन्न भागों तक पहुंचाता है और पाचन क्रिया के बाद बने हानीकारक पदार्थों को उत्सर्जी अंगो तक ले जा कर उन्हें फिर साफ़ होने का मौका देता है। श्वेत रक्त कणिकाएँ हानीकारक तत्वों तथा बिमारी पैदा करने वाले जीवाणुओं से शरीर की रक्षा करते हैं। प्लेटलेट्स रक्त वाहिनियों की सुरक्षा तथा खून बनाने में सहायक होते हैं। मनुष्यों में रक्त ही सबसे आसानी से प्रत्यारोपित किया जा सकता है। रक्त के सहारे ही मनुष्य में जीवन कायम रखता है। दुर्खटनाओं या कुछ बीमारियों के कारण मनुष्य में रक्त की कमी हो सकती है। इससे बचने के लिए हम दूसरों को रक्तदान कर सकते हैं। दूसरों का जीवन बनाए रखना भाईचारा है, मानवता है। हर स्वस्थ मनुष्य महीने में एक बार रक्तदान कर सकता है। खून लेने-देने में बहुत सावधानी की आवश्यकता भी होती है।
वह तोडती पत्थर ।
देखा मैंने इलाहाबाद के पथ पर,
वह तोडती पत्थर ।
कोई न छायादार
पेड वह जिसके तले बैठी स्वीकार,
श्याम तन, भर बँधा यौवन,
नत नयन, प्रिय-कर्म-रत-मन ।
गुरु हथौडा हाथ।
करती बार-बार प्रहार :-
सामने तरु मालिका, अट्टालिका प्राकार
चढ रही थी धूप,
गर्मियों के दिन
दिवा का तमतमाता रूप,
उठी झुलसाती हुई लू,
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गई,
प्राय: हुई दुपहर:-
वह तोडती पत्थर।
देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार,
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टी से
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैं ने वह नहीं जो थी सुनी झंकार
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा -
"मैं तोड़ती पत्थर !"