01 October, 2009


तोडती पत्थर (सूर्यकाँत त्रिपाठी निराला)


वह तोडती पत्थर ।
देखा मैंने इलाहाबाद के पथ पर,
वह तोडती पत्थर ।
कोई न छायादार
पेड वह जिसके तले बैठी स्वीकार,
श्याम तन, भर बँधा यौवन,
नत नयन, प्रिय-कर्म-रत-मन ।
गुरु हथौडा हाथ।
करती बार-बार प्रहार :-
सामने तरु मालिका, अट्टालिका प्राकार
चढ रही थी धूप,
गर्मियों के दिन
दिवा का तमतमाता रूप,
उठी झुलसाती हुई लू,
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गई,
प्राय: हुई दुपहर:-
वह तोडती पत्थर।
देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार,
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टी से
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैं ने वह नहीं जो थी सुनी झंकार
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा -
"मैं तोड़ती पत्थर !"


1 comment:

Anonymous said...

nice work.....m fan of nirala ji