13 December, 2009

दिनकर जी एक और अतिसुंदर कविता, दसवीं कक्षा के छात्रों के अतिरिक्त वाचन के लिए :-
जियो जियो अय हिन्दुस्तान (स्वाधीन भारत की सेना)

जाग रहे हम वीर जवान,
जियो, जियो, अय हिन्दुस्तान !


हम प्रभात की नई किरण हैं, हम दिन के आलोक नवल,

हम नवीन भारत के सैनिक, धीर, वीर, गंभीर, अचल,

हम प्रहरी ऊँचे हिमाद्रि के, सुरभि स्वर्ग की लेते हैं,

हम हैं शान्तिदूत धरणी के, छाँह सभी को देते हैं,

वीर-प्रसू माँ की आँखों के हम नवीन उजियाले हैं,

गंगा, यमुना, हिन्द-महासागर के हम रखवाले हैं ।


तन मन धन तुम पर कुर्बान,

जियो, जियो, अय हिन्दुस्तान !


हम सपूत उनके, जो नर थे अनल और मधु के मिश्रण,

जिनमें नर का तेज प्रखर था, भीतर था नारी का मन,
एक नयन संजीवन जिनका, एक नयन था हालाहल,
जितना कठिन खड्ग था कर में उतना ही अंतर कोमल,

थर-थर तीनों लोक काँपते थे जिनकी ललकारों पर,

स्वर्ग नाचता था रण में जिनकी पवित्र तलवारों पर

हम उन वीरों की सन्तान,
जियो, जियो, अय हिन्दुस्तान !


हम शकारि-विक्रमादित्य हैं अरिदल को दलनेवाले,

रण में ज़मीं नहीं, दुश्मन की लाशों पर चलनेवाले,

हम अर्जुन, हम भीम, शान्ति के लिये जगत में जीते हैं,

मगर, शत्रु हठ करे अगर, तो लहू वक्ष का पीते हैं,

हम हैं शिवा-प्रताप, रोटियाँ भले घास की खाएँगे,
मगर किसी ज़ुल्मी के आगे मस्तक नहीं झुकायेंगे ।

देंगे जान, नहीं ईमान,

जियो, जियो, अय हिन्दुस्तान !


जियो, जियो, अय देश ! कि पहरे पर ही जगे हुए हैं हम,

वन, पर्वत, हर तरफ़ चौकसी में ही लगे हुए हैं हम,
हिन्द-सिन्धु की कसम, कौन इस पर जहाज़ ला सकता है ?
सरहद के भीतर कैसे कोई दुश्मन कैसे आ सकता है ?

पर की हम कुछ नहीं चाहते, अपनी किन्तु, बचाएँगे,

जिसकी उँगली उठी, उसे हम यमपुर को पहुँचायेंगे ।


हम प्रहरी यमराज समान,

जियो, जियो, अय हिन्दुस्तान !!



एक व्याख्या
रामधारी सिंह 'दिनकर' भारत के राष्ट्रकवि के नाम से जाने जाते हैं उनका जन्म 30 सितंबर 1908 को बिहार राज्य के बेगुसराय जिले का सिमरिया घाट में हुआ था। 1972 में उनका काव्य संग्रह "उर्वशी" के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला है। उनका निधन 24 अप्रैल 1974 को हुआ था।
"सिंहासन खाली करो " कविता में भारत के नए शासकों को जनता की शक्ति के बारे में चेतावनी दे रहे हैं।

सदियों की ठंडी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्ठी सोने का ताज पहन इठलाती है,
दो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

भारत की जनता सदियों से चुप-चाप बैठी थी। आज वह जाग उठी है। यहाँ मिट्ठी का मतलब साधारण जनता है। आज समय उनके साथ है और वे रहे हैं। हे शासक, उनको जगह दो, तू सिंहासन छोडकर भाग जा, जनता सिंहासन लेने के लिए रही है।

जनता? हाँ, मिट्ठी की अबोध मूरतें वही,
जाडे-पाले की कसक सदा सहनेवाली,
जब अंग-अंग में लगी साँप हों चूस रहे,
तब भी कभी मुँह खोल दर्द कहनेवाली।

जनता अबोध है, उनके बीच के लोग ही उनका शोषण करती रही, फिर भी उन्होंने कुछ नहीं किया। जनता ने अपना दर्द किसी से आज तक नहीं बताया।

हुँकारों से महलों की नींव उखड जाती,
साँसों के बल से ताज हवा में उडता है,
जनता की रोक राह, समय में ताब कहाँ?
वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुडता है।

जनता की शक्ति बहुत बडी है। उनके हुँकारों से शासक वर्ग के महलों की नींव उखड सकती है। जनता के साँसों के बल से ही शासकों के ताज हवा में उड सकती है। उनकी राह रोकना किसी से मुमकिन नहीं है। आज समय उनके साथ है।

अब्दों, शताब्दियों, सहस्राब्द का अंधकार
बीता; गवाक्ष अंबर के दहके जाते है,
यह और नहीं कोई, जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमडते आते हैं।

सदियों तक भारत की जनता गुलामी की अंधकार में डूबे बैठे थे। आज उनके सपनों पर प्रकाश फैल रहा है। जनता के स्वप्न आज साकार होने जा रहे हैं तिमिर का वक्ष चीरते हुए जनता के स्वप्न अजय हो रहे हैं।


सबसे विराट जनतंत्र जगत का आ पहूँचा,
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तैयार करो,
अभिषेक आज राजा का नहीं प्रजा का है,
तंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।

भारत जगत का सबसे बडा जनतंत्र राष्ट्र है। यह आज सब के सामने गया है। यहाँ की जनता आज सिंहासन पर बैठने के लिए तैयार हैं। आज प्रजा का अभिषेक होने जा रहा है। यहाँ की तैंतीस कोटि जनता मुकुट धरेंगे।

06 December, 2009


चेरापूँजी - एक नज़ारा (प्रदीप पंत जी का यात्राविवरण, कुछ छत्रोपयोगी चित्र)



आगे एक प्रेसेन्टेषन देखिए :-
बादल को घिरते देखा है - नागार्जुन

अमल धवल गिरि के शिखरों पर,
बादल को घिरते देखा है।

छोटे-छोटे मोती जैसे
उसके शीतल तुहिन कणों को,
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है,

बादल को घिरते देखा है।

तुंग हिमालय के कंधों पर
छोटी बड़ी कई झीलें हैं,
उनके श्यामल नील सलिल में
समतल देशों से आ-आकर

पावस की उमस से आकुल

तिक्त-मधुर विषतंतु खोजते
हंसों को तिरते देखा है।

बादल को घिरते देखा है।


ऋतु वसंत का सुप्रभात था
मंद-मंद था अनिल बह रहा
बालारुण की मृदु किरणें थीं
अगल-बगल स्वर्णाभ शिखर थे
एक-दूसरे से विरहित हो
अलग-अलग रहकर ही जिनको
सारी रात बितानी होती,
निशा-काल से चिर-अभिशापित
बेबस उस चकवा-चकई का
बंद हुआ क्रंदन, फिर उनमें
उस महान् सरवर के तीरे
शैवालों की हरी दरी पर
प्रणय-कलह छिड़ते देखा है।

बादल को घिरते देखा है।

शत-सहस्र फुट ऊँचाई पर
दुर्गम बर्फानी घाटी में
अलख नाभि से उठने वाले
निज के ही उन्मादक परिमल-
के पीछे धावित हो-होकर
तरल-तरुण कस्तूरी मृग को
अपने पर चिढ़ते देखा है,

बादल को घिरते देखा है।

कहाँ गये धनपति कुबेर वह
कहाँ गई उसकी वह अलका
नहीं ठिकाना कालिदास के
व्योम-प्रवाही गंगाजल का,
ढूँढ़ा बहुत किन्तु लगा क्या
मेघदूत का पता कहीं पर,
कौन बताए वह छायामय
बरस पड़ा होगा न यहीं पर,
जाने दो वह कवि-कल्पित था,
मैंने तो भीषण जाड़ों में
नभ-चुंबी कैलाश शीर्ष पर,
महामेघ को झंझानिल से
गरज-गरज भिड़ते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।

शत-शत निर्झर-निर्झरणी कल
मुखरित देवदारु कानन में,
शोणित धवल भोज पत्रों से
छाई हुई कुटी के भीतर,
रंग-बिरंगे और सुगंधित
फूलों की कुंतल को साजे,
इंद्रनील की माला डाले
शंख-सरीखे सुघड़ गलों में,
कानों में कुवलय लटकाए,
शतदल लाल कमल वेणी में,
रजत-रचित मणि खचित कलामय
पान पात्र द्राक्षासव पूरित
रखे सामने अपने-अपने
लोहित चंदन की त्रिपटी पर,
नरम निदाग बाल कस्तूरी
मृगछालों पर पलथी मारे
मदिरारुण आखों वाले उन
उन्मद किन्नर-किन्नरियों की
मृदुल मनोरम अँगुलियों को
वंशी पर फिरते देखा है।

बादल को घिरते देखा है।

04 December, 2009

भोपाल महाविपदा का पच्चीसवाँ सालगिरा…

3 दिसंबर ,1984 के आधी रात को मध्यप्रदेश के भोपाल के यूणियन कारबैड रासायनिक उरवरक कारखाने से मीथैल ऐसोसैनैट वायु बाहर आया और लगभग तीन हज़ार लोगों की मृत्यु हुई थी। तीन दिन में दस हज़ार से अधिक लोगों की मृत्यु हुई और आज तक पच्चीस हज़ार से अधिक लोगों को परलोक पहूँचायी है। उन सब लोगों को वायु में दूषित हवा मिलने के कारण ही अपना जीवन खो देना पड रहा है। वायु प्रदूषण के पच्चीस साल बीत जाने पर भी, उन दिनों जो मलिन विषैली वस्तुएँ मिट्टी में मिल गयी थीं, उन से अब भी वहाँ के लोग परेशान है, क्योंकि वे विषैली वस्तुएँ धरती के नीचे जाकर वहाँ की पानी को खराब कर रहा हैं।


आज की माँग क्या है?

सरकार के द्वारा उन लोगों को सुविधाएँ दिलाना, जो इस महाविपदा के शिकार बने थे। भोपाल में जो महाविपदा हुई थी, उन जैसी विपदाओं को किसी भी हालत में रोकना चाहिए। सरकार की ओर से जब कारखाने खोलने के लिए अनुमति दी जाती है, तब वहाँ के लोगों की हालत क्या है, वहाँ के पीने का पानी का क्या होगा, वहाँ की वनस्पतियों को क्या होगी, उनके संरक्षण के लिए कारखाने खोलनेवालों की ओर से क्या कदम होगी, इन सबके बा
रे में सोच विचार करने के बाद ही अनुमति देनी चाहिए। इन सब बातों सब से अहम बात वहाँ के लोगों की जान को देनी होगी। कारखाने खोलने से पहले सब पहलुओं पर गौर से सोच विचार नहीं करेंगे तो भोपाल जैसी महाविपदाएँ इस देश में फिर कटेगी और खुदा से अर्ज की गयी जान फिर से काल के मुँह में जाकर काँपेगी, जिसकी बचाव करने के लिए इस दुनिया का कोई भी सरकार काबिल नहीं रहेगी। कल भोपाल में जो "जन सघरष मोरचा " की परिचर्चा हुई थी, उसमें विभिन्न सरकारों को आज की दुरवस्था के लिए दोषी ठहराया। विकास के नाम पर इस देश में जो कार्य हो रहे हैं वे सब भोपाल जैसी महाविपदाएँ दोहराने के लिए सहायता करेंगे ही। परिचर्चा में श्री अनिल सदगोपाल जी द्वारा लिखित "डालर की छल में" और "ज़हर घोला भोपाल में"- इन किताबों का प्रकाशन भी हुआ था।


काला समय सूची : 1969 : यूनियन कारबैड इंडिया लिमिटड कारखाने की शुरुआत। 1979 : मीथैल ऐसोसैनैट उत्पादन की शुरुआत। 1984 : (3 दिसंबर रात 11.30 बजे) कारखाने की 610 पैप से गैस टपकने लगी। : कारखाने की भोंपू बजने लगी ताकि कर्मचारी समझ जाएँ कि कोई विपत्ति है। : दो बजे लोग हमीदिया अस्पताल पहूँचे।

01 December, 2009


" सचाई की छोटी कहानी "

दो भाई कहीं जा रहे थे। दोनों को रास्ते में पडे कुछ रत्न मिले।
दोनों ने उसको बाँट लिया। छोटा भाई बोला :"भैया, मैं घर वापस जा रहा हूँ।"
पर बडे भाई एक रत्न छोटे भाई को देते हुए बोले : "मैं कहीं जाकर इन रत्नों को बिकने के बाद ही आऊँगा
, तू मेरे घरजाकर मेरी पत्नी को यह रत्न मेरी तरफ से भेँट करना।"
"आप घबराइए मत। भाभीजी को मैं यह दे दूँगा। आप निश्चिंत होकर जाइए
"
दोनों
अपने अपने रास्ते चले गये।
कुछ
दिन बीत जाने पर बडा भाई वाप
आया।
उसने
आते ही पत्नी से रत्न के बारेमें पूछा।
पत्नी बोली: "अरे, छोटा भाई तो मुझे कुछ नहीं दिया। कहीं भूल गया होगा। "
बडे
भाई ने छोटे भाई से जाकर पूछा तो छोटा बोल उठा : "मैंने भाभी को उसी दिन दे दिया था। कहीं वह झूठ तो नहीं बोल रही हैं?"
बडे
भाई असमंजस में पड गये। उन्होंने एक न्यायाधीश के पास जाकर शिकायत की।
न्यायाधीश
ने तीनों कोबुलाया।

वे
बोले: "कल आप तीनों एक एक मिट्टी का रत्न बनाकर लाइए। पर किसी को दिखा
ना मत। "
अगले दिन ठीक समय पर तीनों गये दोनों भाइयों का रत्न एक समान था। लेकिन बडे भाई की पत्नी ने मिट्टीसे सिर्फ एक गोल ही बनाकर लाई थी। न्यायाधीश सब कुछ समझ गये और छोटे भाई को तीन वर्ष की सख्त सज़ा दी।
संदेश
: सच को हमेशा के लिए छिपाकर रखना मुमकिन नहीं है।



विपत्ति निवारण प्रतिज्ञा - हमारी सुरक्षा

(( आज केरल के सब विद्यालयों में इस प्रकार की प्रतिज्ञा की जाएगी। सरकार की ओर से यह निर्देश है कि ठीक 10 बजकर 30 मिनट पर सब अध्यापक और छात्र इस प्रतिज्ञा लें। ))

अचानक जानेवाली विपदाओं से हमारे बच्चों की सुरक्षा करना समाज का कर्तव्य है।

तट्टेक्काड, इरिक्कूर, तेक्कडी, नूरनाड और मलप्पुरम में घटित विपदाओं में जान खोये बच्चों को हम इस अवसर पर याद करते हैं।

मैं समझता हूँ कि आपदाओं को पहले से ही जानकर सावधानी से काम चलाने के लिए सभी छात्रगण को क्षमता होनी चाहिए।

मैं यह प्रतिज्ञा करता हूँ कि आपदाओं के अवसर पर जीवनरक्षा कार्य कैसे करें, इसके बारे में सुरक्षा समिती से सीख लूँगा और अध्यापक गण की सहायता से उसे संपन्न भी करूँगा।

मैं यह प्रतिज्ञा करता हूँ कि सुरक्षा समिती से हाथ मिलाकर हर बच्चे की सुरक्षा कायम रखने के लिए मैं सक्षम बन जाऊँगा ।

आज मैं अपने मन में यह दृढ संकल्प लेता हूँ कि भविष्य में समाज के सभी विपत्ति निवारण कार्यक्रमों में मेरी सक्रिय और सशक्त भागीदारी ज़रूर होगी।