तेरा साई तुझ में, ज्यों पुहुपन में बास ।
कस्तूरी का मिरग ज्यों, फिरि फिरि ढूँढै घास ॥
कस्तूरी का मिरग ज्यों, फिरि फिरि ढूँढै घास ॥
फूल महकते हैं। उनकी महक तो उनके अंदर से ही आती है। इस प्रकार हमारा ईश्वर हमारे अंदर ही वास करता है। कस्तूरी मृग यह नहीं जानती है कि कस्तूरी उसकी नाभि में है। वह कस्तूरी की खोज में इधर उधर ढूँढती फिरती है और हिंस्र जंतुओं की पकट में पड जाती है। हम मानव भी ईश्वर की खोज में मंदिरों में जाते हैं और पूजा के रूप में हमारा सब लुटेरों के हाथ गंवा बैठते हैं।
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